छगन भुजबल: महाराष्ट्र में महायुति के भीतर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। एनसीपी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल नई गठित सरकार में मंत्री पद न मिलने से असंतुष्ट हैं। उन्होंने पार्टी प्रमुख अजित पवार पर निशाना साधते हुए पार्टी के संचालन के तरीके पर असहमति जताई। यहां तक कि उन्होंने स्वतंत्र मार्ग अपनाने का संकेत दिया। छगन भुजबल ने कहा, “जहां नहीं चैना, वहां नहीं रहना।” उन्होंने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करने की इच्छा के बावजूद उन्हें शामिल नहीं किया गया।
छगन भुजबल ने नासिक में कहा, “मैं आपके हाथों का खिलौना नहीं हूं जो आंख मूंदकर सब कुछ मान लूंगा… छगन भुजबल ऐसे व्यक्ति नहीं हैं… मुख्यमंत्री (देवेंद्र फडणवीस) चाहते थे कि मैं कैबिनेट में शामिल होऊं। मैंने भी इसकी पुष्टि की और मुझे जानकारी मिली कि वह मुझे कैबिनेट में शामिल करने पर जोर दे रहे थे। लेकिन मुझे हटा दिया गया। अब मुझे पता लगाना होगा कि किसने इसे खारिज किया।” उन्होंने कहा कि मराठा सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जरांगे-पाटिल का विरोध करने और ओबीसी समुदाय के लिए खड़े होने के कारण उन्हें कैबिनेट में स्थान नहीं मिला।
जब उनसे उनके भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने किशोर कुमार के गाने की एक पंक्ति का उद्धरण देते हुए कहा, “देखते हैं. जहां नहीं चैना, वहां नहीं रहना.” छगन भुजबल ने कहा कि शिवसेना, कांग्रेस और एकीकृत एनसीपी जैसी पार्टियाँ, जिनसे वे जुड़े रहे हैं, हमेशा महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले उनके जैसे नेताओं से परामर्श करती हैं। इस संदर्भ में उन्होंने अजित पवार की एनसीपी की आलोचना की।
संघर्ष से सफलता तक: छगन भुजबल की प्रेरणादायक राजनीतिक यात्रा
महाराष्ट्र की राजनीति में कई प्रभावशाली नेता हैं, लेकिन छगन भुजबल का इनमें एक विशिष्ट स्थान है। उनका राजनीतिक जीवन अनेक चुनौतियों से भरा रहा है, और यह कहा जा सकता है कि उन्होंने संघर्ष से सफलता तक का सफर तय किया है। एक समय था जब भुजबल सब्जी बेचा करते थे, लेकिन यही व्यक्ति बाद में महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री बने, वह भी दो बार। उन्हें राज्य के एक प्रभावशाली नेता के रूप में भी जाना जाता है। छगन भुजबल महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला निर्वाचन क्षेत्र से 2004 से लगातार विधायक हैं। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने येवला में एनसीपी-एसपी के माणिकराव माधवराव शिंदे को पराजित कर अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखा।
छगन भुजबल: शिवसेना से राजनीति की शुरुआत और ओबीसी नेतृत्व तक का सफर
1947 में जन्मे छगन भुजबल का राजनीतिक सफर 1960 के दशक में आरंभ हुआ, जब उन्होंने शिवसेना से जुड़ाव किया। उस समय बायकुला में सब्ज़ियां बेचने वाले भुजबल, बाला साहेब ठाकरे के ओजस्वी भाषणों से प्रेरित थे और उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। बाला साहेब के साथ राजनीति करते हुए उन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधियों का विस्तार किया और मुंबई से कॉर्पोरेटर चुने गए। वह शिवसेना के प्रारंभिक सदस्यों में से एक थे और शीघ्र ही पार्टी के प्रमुख नेताओं में से एक के रूप में स्थापित हो गए। वह एक बार मुंबई के मेयर भी बने। महाराष्ट्र में एक प्रमुख ओबीसी चेहरा, भुजबल अखिल भारतीय महात्मा फुले समता परिषद के प्रमुख भी हैं।
छगन भुजबल: शिवसेना से कांग्रेस तक का राजनीतिक सफर
छगन भुजबल पहली बार 1985 में और फिर 1990 में मझगांव विधानसभा सीट से विधायक चुने गए। हालांकि, जब बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को विधानसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया, तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी। छगन भुजबल को ठाकरे परिवार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भी जाना जाता है। 1991 में, छगन भुजबल ने शिवसेना में एक बड़ी फूट डाली और 18 विधायकों को अपने साथ लेकर शिवसेना बी पार्टी का गठन किया। वह दल-बदल कराने वाले पहले उच्च-प्रोफाइल शिवसेना नेता थे। बाद में, वह कांग्रेस में शामिल हो गए।
छगन भुजबल: राजनीतिक सफर और सत्ता में निर्णायक मोड़
1995 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पहली बार राज्य की सत्ता से बाहर हो गई, और छगन भुजबल भी अपना चुनाव हार गए। एक समय ऐसा आया जब शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी नई पार्टी बनाने का निर्णय लिया। उस समय छगन भुजबल ने उनका समर्थन किया और उनके साथ खड़े रहे। इसके फलस्वरूप, शरद पवार ने उन्हें विधान परिषद में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। जब शरद पवार ने कांग्रेस छोड़कर एनसीपी की स्थापना की, तब छगन भुजबल पार्टी के पहले प्रदेश अध्यक्ष बने। 1999 के विधानसभा चुनावों के बाद, जब कांग्रेस-एनसीपी ने सरकार बनाई, तब छगन भुजबल उपमुख्यमंत्री बने। हालांकि, जब शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने सत्ताधारी शिंदे गुट का समर्थन करने का निर्णय लिया, तो छगन भुजबल ने भी उनका साथ दिया और शिंदे सरकार में मंत्री पद की शपथ ली।
छगन भुजबल: शिवसेना से दूरियों के बाद नए राजनीतिक सफर की तलाश
2002 में, उन्होंने 1992-93 के दंगों के संबंध में शिवसेना के मुखपत्र सामना के खिलाफ एक मामले में बाला साहेब ठाकरे की गिरफ्तारी का आदेश दिया। हालांकि अदालत ने बाल ठाकरे को रिहा कर दिया, लेकिन इस घटना के बाद छगन भुजबल और बाल ठाकरे के बीच संबंध समाप्त हो गए। पांच साल पहले, छगन भुजबल के शिवसेना में शामिल होने की चर्चा थी। लेकिन उस समय मुंबई के दादर स्थित सेना भवन और मराठी बाहुल्य क्षेत्रों के कुछ अन्य स्थानों के बाहर एनसीपी विधायक को पार्टी में शामिल करने के खिलाफ पार्टी नेतृत्व को चेतावनी देने वाले बैनर लगाए गए थे। इन बैनरों में अतीत की याद दिलाते हुए कहा गया था कि भुजबल ही थे जिन्होंने सेना सुप्रीमो (दिवंगत) बाल ठाकरे को गिरफ्तार करवाया था। एक बैनर पर लिखा था, “महाराष्ट्र के लोग साहेब (बाल ठाकरे) को दिए गए दर्द को कभी नहीं भूल सकते। आप (भुजबल) जहां हैं, वहीं रहें।” अब वही छगन भुजबल एक बार फिर अपने लिए नया रास्ता तलाश रहे हैं। देखते हैं कि इस बार उनका गंतव्य कहां होता है।
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